देश व दुनिया में मोहर्रम को किया जाता है इमाम हुसैन की शहादत के लिए याद…
यजीद कितना बुजदिल था,उसने हजरत इमाम हुसैन को कत्ल करने के लिए 26 बादशाहों से फौजें बुलाईं थी और मेरा हुसैन कितना बहादुर था कि अपने साथ सिर्फ 72 का काफिला लेकर चले थे,जिनमें 6 माह के बच्चे और 80 साल के बूढ़े भी शामिल थे।यजीद फिर भी हार गया और हुसैन कत्ल होकर भी जीत गये जीत गये।ये मोहर्रम जुल्म के खिलाफ एक प्रोटेसट है,जो 1386सालों से न सिर्फ अरब और ईरान में बल्कि दुनिया के कोने-कोने में हक के लिए अल्लाह की राह और दीन बचाने के लिए और अपने नाना रसूललाह की शरीयत को बचाने के खातिर अपने और अपने परिवार और अपने साथियों की मोहर्रम की 10 सन् 61हिजरी ईराक के तपते हुए रेगिस्तान में तीन दिन के भूके-प्यासों ने कुर्बानी देकर हक को बचा लिया और जालिम को हरा दिया।इसी दिन को रोजे आशूरा भी कहा जाता है।इमाम हुसैन की ये अजीम कुर्बानी ना केवल इस्लाम के लिए बल्कि इंसानियत के लिए दी।इसीलिए आज ना केवल मुसलमान बल्कि जुल्म के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाली जीहोश कौमें कर्बला के शहीदों को याद करते हैं। इस अजीम कुर्बानी से ये संदेश मिलता है कि जुल्म और जालिम ज्यादा दिन नहीं रहता,बल्कि हक की राह पर चलने वाले मजलूम हमेशा जिन्दा रहते हैं।यजीद की ये बर्बरतापूर्ण बादशाहत केवल तीन साल रही।यजीद इमाम हुसैन से अपनी अधीनता स्वीकार कराकर अल्लाह और उसके रसूल की शरीयत को नष्ट करने और अपने बाप दादाओं की शरीयत को इस्लाम की शरीयत के रूप में पेश करना चाहता था,लेकिन इमाम हुसैन ने जालिम व फासिक यजीद की अधीनता यानि बैयत को ठुकरा कर कुर्बानी देकर दीन को बचा लिया।दुनिया के सब यजीद इसी गम से मर गये,सिर मिल गया हुसैन का बैयत नहीं मिली।न वो यजीद रहा और ना वो हयात रही,मगर हुसैन रहे और उनकी बात रही।इस साल आज दस मोहर्रम 17 जौलाई 2024 को उनकी शहादत को सलाम पेश कर रहे हैं।मस्जिद रहिमया के इमाम कारी मोहम्मद हारुन साहब फरमाते हैं कि 10 मोहर्रम पर दो रोजे रखने का बहुत बड़ा सवाब है।10 मोहर्रम के दिन की उन्होंने और भी बहुत सारी फजीलतें बताई हैं।एक बयान में उन्होंने कहा कि इस दिन मातम करना,ताजिया निकालना किसी भी हदीस से साबित नहीं है,इस दिन रोजा रख कर इबादत की जाए और अपने घर में कुछ अच्छा खाना बनाकर बच्चों को खिलाया जाए,जिससे पूरे साल घर में खुशहाली और खैरो-बरकत रहती है।
-इमरान देशभक्त